शिक्षा एवं समाज के मध्य अंतःसम्बन्धों का समाजशास्त्र

Dr Jyoti Sidana
सह-आचार्य, समाजशास्त्र विभाग राजकीय कला कन्या महाविद्यालय कोटा (राजस्थान) Email-drjyotisidana@gmail.com, Mobile- 7976207834
ऐसा माना जाता है कि शोध और विकास के मध्य गहरा सम्बंध है क्योंकि शोध कार्य के परिणामों के आधार पर ही विकास कार्यों के लिए उपयुक्त नीति बनायी जाती है. अतः अकादमिक संस्थानों में किये जाने वाले शोध देश के समग्र विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। प्रोफेसर जे.वी.नार्लेकर ने विज्ञान नीति पर चर्चा करते हुए कहा था कि भारत सरकार और विभिन्न सरकारों ने विज्ञान एवं अन्य अनुसंधानों को दिशा देने के लिए अनेक शोध संस्थान स्थापित किये हैं ताकि एक वैज्ञानिक अपने विचार एवं क्रियाओं की स्वतंत्रता के साथ एक स्वायत्तशासी परिवेश में सक्रिय हो सके. परन्तु इन संस्थानों के प्रशासनिकीकरण, युवा वैज्ञानिकों के लिए शोध सम्बन्धी रोजगार का ह्रास, विश्विद्यालयों में विज्ञान एवं समाज विज्ञान विषयों की उपेक्षा तथा इन क्षेत्रों में कार्यरत विशेषज्ञो की तुलनात्मक रूप से कम प्रतिष्ठा कुछ ऐसे पक्ष हैं जो भारत की ज्ञान अर्थव्यवस्था के विकास के सम्मुख गंभीर चुनौती उत्पन्न करते हैं. पिछले कुछ वर्षों से अकादमिक संस्थानों में किये जाने वाले शोध कार्यों की गुणवत्ता पर संदेह किया जाता रहा है और साथ ही विश्व की रैकिंग में भी हमारा कोई विश्वविद्यालय उच्च स्थान प्राप्त नहीं कर सका है। संभवतः इसीलिए पीएच.डी. की डिग्री के फर्जी होने या शोध कार्य के कट-कापी-पेस्ट होने की बढती प्रवृति ने प्लेग्रिज्म के माध्यम से इस प्रकार के शोध कार्यों पर रोक लगाने का प्रयास किया है. क्या वास्तव में उच्च शिक्षण संस्थानों/विश्वविद्यालयों में शोध की स्थिति इतनी खराब है कि उसमें नवाचार, नवीनता, वैधता जैसे तत्वों का अभाव है? अगर ऐसा है तो क्यों? यह सोचने का विषय है?

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