शिक्षक-प्रशिक्षण में आत्म-प्रभावकारिता की भूमिका: एक अध्ययन

SURABHI SAHU
सुरभि साहू शोधार्थी, शिक्षा संकाय दयालबाग एजुकेशनल इंस्टीट्यूट, आगरा surabhisahu752@gmail.com , 8840067108
सारांश शिक्षा में सूचना व प्रौद्योगिकी के अंतरण से शिक्षा प्रणाली में महती परिवर्तन की आवश्यकता को महसूस किया गया है। आवश्यक परिवर्तन के उपरांत ही शैक्षिक लक्ष्यों को सुगम बनाया जा सकता है। इसी क्रम में कक्षागत शिक्षण प्रक्रिया को भी उत्तम बनाने की आवश्यकता को मह्सूस किया गया। क्योंकि कक्षागत शिक्षण कार्य में ‘शिक्षक‘ एकमात्र प्राणवायु प्रदान करने वाले साधन के रूप में प्रतीत होता है। इसीलिए अन्य परिवर्तनों के साथ आवश्यक है कि शिक्षक-प्रशिक्षण प्रक्रिया को भी संवर्धित किया जाए। वर्तमान समय में निरन्तर हो रहे मनोवैज्ञानिक शोधों ने शिक्षा की दृष्टि से विविध तत्वों की पहचान की है, जिनके विशेष महत्व व आवश्यकता की भी जानकारी प्राप्त हुई। उन्ही कारकों में से एक महत्वपूर्ण कारक ‘आत्म-प्रभावकारिता‘ भी प्रकाश में आया है। आत्म-प्रभावकारिता मुख्य रूप से लक्ष्य, कार्य, चुनौतियों व समस्याओं के लिए आवश्यक मार्गों का निर्देशन करता है। व्यावहारिक रूप से कहा जाए तो, व्यक्ति प्रदत्त कार्य को जितने बेहतर तरीके से संपादित करता है, यह उसकी आत्म-प्रभाकारिता पर ही निर्भर है। एक शिक्षक जब कक्षागत शिक्षण कार्य करता है तो वह यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि उसके द्वारा किए जाने वाले व्यवहारों का प्रदर्शन इस प्रकार से हो कि वह अपने ज्ञान व क्षमताओं का अनुप्रयोग अपेक्षित लक्ष्य के अनुरूप (अर्थात् जो उपयोगी व प्रभावी हो) करे, अन्यथा शिक्षक अपने शैक्षिक कार्यों में सफल नहीं माना जाता है। इन क्षमताओं के लिए आत्म-प्रभावकारिता की विशेष भूमिका है क्योंकि इसके माध्यम से व्यक्ति में प्रभावी प्रदर्शन हेतु उपयुक्त रणनीतियों के चयन व उनके निष्पादन हेतु प्रोत्साहन मिलता है तथा उन्हें बाधाओं व चुनौतियों से सीखने की क्षमता भी प्राप्त होती है। अतः शिक्षक प्रशिक्षुओं के लिए आत्म-प्रभावकारिता का अपना एक विशिष्ट स्थान है। मुख्य बिन्दु: शिक्षक-प्रशिक्षण, आत्म-प्रभावकारिता, शिक्षक, समायोजन।

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