मानव अधिकार और भारतीय संस्कृति एवं साहित्य

Dr Aradhna Saxena
सहआचार्य, समाजशास्त्र राजकीय कला महाविद्यालय, सीकर (राजस्थान) Email- aradhanasaxena14@gmail.com, Mob. 9116778523
मानवाधिकारों की संकल्पना एक व्यापक जीवन-दर्षन पर आधारित संकल्पना है जिसके घेरे में समूचा जीवन और समाज व्यवस्था आ जाती है। मानवाधिकारों की संकल्पना की बूनियाद है मनुश्य को सब कुछ का पैमाना मानना। मेन इज दी मेजर ऑफ थिग्स। इसी बात को कार्ल मार्क्स ने ‘मेनइज दी रूट ऑफ मैनकाइन्ड’ कह कर व्यक्त किया है। मनुश्य मानवता की जड़ हैः मनुष्य से श्रेश्ठ कुछ भी नहीं है, मनुष्य चीजों का मापदण्ड है, मनुष्य ही एक मात्र सतय है। इस तरह की बातें इस विचारधारा को मानने वाले लोगों से अक्सर सुनने को मिल जाती हैं। वैज्ञानिक मनुष्य को जीवों में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, दार्शनिक उसमें चेतना की चरम अभिव्यक्ति खोजते हुए सृष्टि का केन्द्रीय स्थान उसी को देते हैं। यहॉ तक कि मनुष्य के इतिहास को एक यान्त्रिक प्रक्रिया के रूप में देखने और मानवीय नियति को यान्त्रिक स्तर पर नियन्त्रित कर सकने की आशा करने वाले भी अपने प्रयत्नों का प्रयोजन मनुष्य का कल्याण ही मानते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था की कसौटी और बुनियादी प्रेरणा भी यही है कि उसके अन्तर्गत मनुष्य के बहुआयामी विकास को किस सीमा तक एक अनुकूल वातावरण व सुविधाएॅ मिलती है। जो व्यवस्था मनुष्य के विकास की संभावनाओं को मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक अथवा आर्थिक स्तर पर रोकती है, उसे हम मानवीय और नैतिक व्यवस्था नहीं कह सकते।

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