प्रेमचंद के साहित्य में नारी जीवन की समस्याओं का यथार्थवादी चित्रण
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Published on: Jun 30, 2024
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DOI: CIJE202492990
Nirmala Parewa
शोधार्थी, महाराजा विनायक ग्लोबल विश्वविघालय, जयपुर, राजस्थान Mobile-9694400194 Email-naaritumho@gmail.com
मुंशी प्रेमचंद कानाम हिंदी साहित्य में भारतीय समाज का यथार्थ चित्रण करने वाले जनवादी लेखक के रूप में जाना जाता है। वे प्रगतिशील लेखक के रूप में अपना साहित्य रचकर हिंदी एवं उर्दू भाषा के प्रतिष्ठित लेखक माने गए है। प्रेमचंद का साहित्य के क्षेत्र में प्रदार्पण सन 1901 ई. में हो गया था जो निरंतर चलने हुए 1936 में उनके देहांत के साथ ही रूका। मुंशी प्रेमचंद का जन्म पराधीन भारत के समाज में ही हुआ यह वह समय था जब समाज मध्यम एवं निम्नवर्ग को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए बाध्य किया जा रहा था। एक ओर ब्रिटिश सत्ता के अत्याचार तो दूसरी ओर सामंतवादी एवं जमींदारी प्रथा का दंश। भारतीय समाज में यह वर्ग तो शोषण और अत्याचार का शिकार हो ही रहा था साथ ही यह वह समय भी रहा जो समाज के प्रत्येक वर्ग की स्त्रि दासी की तरह जीवन जीने को मजबूर थी। इस किवदन्ती को सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा कि ’हमारे समाज में स्त्रियॉं दासो की दासियां थी। इस समय भारत की स्त्रियाँ उपनिवेशवाद एवं सामंतवाद रूपी दो पाटों के बीच पिस रही थी। स्त्रियों को समाज में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त नहीं थे और यही वजह थी की प्रेमचंद स्त्रियों का तत्कालीन स्थिति से पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं थे। जहां उच्च वर्ग की महिलाएँ सिर्फ घरेलू कार्यों में ही संलग्न रहती थी लेकिन मध्य वर्ग निम्न वर्ग की महिलाएँ घरेलू कार्य के साथ - साथ काश्तकारी का कार्य भी करती थी इसी कारण इस वर्ग के परिवारों में स्त्री शिक्षा को महत्व कम दिया जाता था या दिया ही नही गया। ऐसे समय में मुंशी प्रेमचंद ने नारी जीवन की समस्या को ही अपने साहित्य का मुख्य विषय बनाया और उनके नारकीय जीवन का चित्रण अपने उपन्यास और कहानियों के माध्यम से समाज के समक्ष प्रस्तुत करने में सफल हुए जो प्रेमचंद जी का हिन्दी साहित्य में अविश्वनीय योगदान कहा जाता है। इसलिए प्रेमचंद ने अपने शब्दों में कहा कि - नारी की उन्नति के बिना समाज का विकास संभव नही है, उसे समाजके द्वारा पूर्ण सम्मान दिया जाना चाहिए तभी समाज का विकास भी पूर्ण रूप से हो सकेगा।